चोटी की पकड़–110
छत्तीस
चार का समय, दिन का पिछला पहर। रानी साहिबा की फूलदानियों में ताजे फूल दोबारा रखे गए। हार आ गए केले के पत्ते में लपेटे हुए।
बर्फ क्रीम-फल तश्तरियों में नाश्ते के लिए आ गए। दक्खिनवाले बड़े बरामदे में छप्परखाट पर थीं।
दखिनाव तेज़ चल रहा था। इक्की-दुक्की दासी घूम जाती थी। दोपहर के आराम के बाद गद्दी से उठकर काठ के जीने से रानी साहिबा उतरी और चंदन की चौकी पर बैठी
, जिस पर बढ़िया कालीन बिछा था। मुन्ना आई। बाहर की आज्ञा-वाहिनी दासी से कह आई थी, कोई न आए।
मुन्ना को देखकर रानी साहिबा ने सहृदयता से पूछा, "क्या खबर है?"
मुन्ना ने प्रणाम करके दूसरे एकांतवाले कमरे में बुलाया, जहाँ प्रायः रानी साहिबा रहती थीं। वे उठकर चलीं।
एक मखमल की गद्दीवाली कुर्सी पर बैठीं। मुन्ना को स्टूल लेकर बैठने के लिए कहा। मुन्ना पंखा यहाँ चलाने के लिए बाहर आज्ञा दे आई, फिर स्टूल लेकर बैठी।
प्रसन्न है, रानी ने गौर से देखा। दिल में ग़म है, मुन्ना ताड़ रही थी। राजा साहब के लिए जगह है।
सँभलकर कहा, "हजूर के दर्शन हुए। यहाँ एक भले आदमी टिके हैं। राजा साहब टिका गए हैं। पुरानी कोठी में रहते हैं। दूसरों की आँख बचायी जाती है।
और भी उनके साथी हों, संभव है। आज पता चला है। बातचीत की है। राजा साहब गए, अब वे भी जाएंगे। सच्चे और अच्छे पढ़े-लिखे आदमी हैं। अभी नौजवान हैं।
तेजस्वी हैं। क्यों हैं, क्या हैं, यह हुजूर को और मालूम होगा। मैं समझती हूँ, उनसे काम निकल सकता है।"
"हमारे मनीजर के इतने पढ़े होंगे?"
"हाँ, जान ऐसा ही पड़ता है।"
"मनीजर को बुलाना होगा।"
"हुजूर, मैं मनीजर साहब की मार्फत बातचीत कराने का बीड़ा नहीं लेती। जब राजा साहब के खास हैं, तब मनीजर साहब से बातचीत नहीं भी कर सकते।"
"फिर क्या सलाह है?"
"आपका भला हो सकता है।"
"अच्छा, कब बुलाना ठीक होगा?"
"शाम के वक्त, दीयाबत्ती हो जाने पर।"
"बुला लेना। यहाँ से कलकत्ता जाएंगे?"
"सरकार!"
"एजाजवालों में हैं?"
"नहीं, यही आपको जान लेना है।"
"अच्छी बात है।"
"पालकी बड़ी ले जाने का विचार है।"
"ले जा।"